बुधवार, 11 सितंबर 2013

ये आग कब बुझेगी ?

चौक चौराहे से लेकर गली की पान दुकान पर हर और हिंसा ही हिंसा नजर आती है कही लोग रूपये के लिए  लड़   है तो कही  जमीन के  लिए और तो और अब पत्नियों के लिए भी लोग  लड़ते  नजर आते है एक साहब आ गए मेरे पास कहने लगे राजेश भाई मेरी पत्नी को बहला कर कोई ले गया लौटने कहता हु तो देता नहीं ? यही नहीं युवा वर्ग अपनी नई गर्ल फ्रेंड के लिए भी अपने मित्र से लड़ता हुआ नजर आ जायेगा ? उस पर पूछो तो कहेंगे हम शांति से रहना चाहते है लेकिन हमें रहने नहीं दिया जा रहा है /  कोई पडोसी को दोषारोपण करता है तो कोई सरकार को तो कोई अपने गृह मंत्रालय को जहा देखिये नुरा कुश्ती है / क्या आप ने कभी सोचा की आखिर मनुष्य जो स्वयं को सर्वश्रेष्ट प्राणी समझता है उसके मानवीय मूल्यों में इतनी गिरावट क्यों आई नहीं ना ? जरा सोचिये क्या हमारे पूर्वज भी इसी प्रकार लड़ते रहते थे या हम ही इस दुष्कृत में सामिल है जबकि हम चाँद पर पहुचने की बात करते है।  स्वयं को ना तो में कोई बाबा समझता हूँ और ना ही बड़ा विद्वान् लेकिन हमारी लालसा ने हमें हिंसा पर उतारू कर दिया हमारी लालसा बढती गई और हम अपनी लालसा को पूरा करने के लिए झूठ , फरेब का सहारा लेने पर मजबूर हुए और एक झूठ हमें सौ झूठ बोलने पर मजबूर करता है यह कोई निरा बुद्धू भी बता देगा ? वर्त्तमान परिस्थितियो की वृहत पैमाने पर चर्चा की आवश्यकता जान पड़ती है क्योकि इस आग को हमें बुझाना हिंसा से प्रेम के मार्ग पर कैसे लौटा जाये ताकि अपना भारत पुन्ह : विश्व गुरु बने  इसकी चिंता नई पीढ़ी को ही करनी है और हमारे युवाओ में यह जज्बा है तभी तो दिल्ली में एक निर्भया की आबरू लुटती है पूरा देश उस परिवार के साथ खड़ा रहता है जिसका नतीजा होता है आरोपी को सरकार सजा देने पर विवश होती है यही नहीं मुजफ्फर नगर में हिंसा होती है सोशल मीडिया उठ खड़ा होता है पीडितो के पक्ष में सरकार की भी कुम्भ करणी निंद्रा टूटती है ? आज जिस प्रकार आगे बढ़ कर लोग सड़को पर उतर रहे है पीडितो के पक्ष में खड़े हो रहे है यह एक अच्छा सन्देश है क्योकि अब गाँधी की एक मात्र अहिंसा की निति से हिंसा को रोकने का किया गया प्रयाश बेमानी साबित होगा  . अब आवश्यकता है मर्यादा पुरुषोतम राम के पद चिन्हों पर चलने की "सठ संग विनय कुटिल संग निति "और 

काटेहिं पइ कदरी फरइ कोटि जतन कोउ सींच।
बिनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच॥58॥
 
भावार्थ:-(काकभुशुण्डिजी कहते हैं-) हे गरुड़जी! सुनिए, चाहे कोई करोड़ों उपाय करके सींचे, पर केला तो काटने पर ही फलता है। नीच विनय से नहीं मानता, वह डाँटने पर ही झुकता है (रास्ते पर आता है)॥58॥ मेरे विचार से यदि हम इस निति पर चले तो भारत को पुन्ह विश्व गुरु बनने से कोई रोक नहीं सकता ?

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