मंगलवार, 1 जुलाई 2014

मीडिया की आजादी संस्कृति के पतन की बड़ी वजह बन रही है ?

१९९५-१९९६ में   वैश्वीकरण ने अपने पाव भारत में फैलाना  आरम्भ किया इसके साथ ही भेड़ बकरियो की तरह समाचार चैनल बाजार में दिखने लगे क्योकि पुरे विश्व को भारत एक  उभरते हुए बाजार के रूप में दिखाई दे रहा था और इस बाजार  को आम जनमानस तक पहुँचाने  के लिए प्रचार प्रसार की आवश्यकता थी जिसका नतीजा हुआ की कुकुरमुत्ते की तरह समाचार चॅनेल बाजार में उग आये।  बड़े बड़े घरानो और नेताओ ने अन्य क्षेत्रो में निवेश से बेहतर मीडिया में निवेश को समझा क्योकि यहाँ खुले आम लूट की छूट थी कार्यपालिका से लेकर विधायिका तक में इसके द्वारा  पैठ  बनाना  बहुत ही आसान कार्य था साथ ही राजनितिक  आकाओ को खुस करने का भी यह एक बेहतर विकल्प था  जिसका नतीजा हुआ की इन मीडिया घरानो ने धन की लालच में भारतीय संस्कृति पर ही प्रहार करना आरम्भ कर दिया और आज ऐसी स्थिति पर ये पहुंच चुके है की बाजार से लेकर सभी क्षेत्रो पर इनकी पकड़ काफी मजबूत हो गई है अब ये जैसा चाहते है वैसा ही हो रहा है सरकार बनाने गिराने से लेकर कीमतों के निर्धारण पर भी इनकी पकड़ मजबूत हो गई है क्योकि विदेशी कंपनिया ऐसा ही चाहती है की  उनके द्वारा उत्पादित वस्तुओ का विरोध ना हो . आज  अगर कोई लड़कियों के पहनावे पर सवाल उठाता है तो मीडिया उसके पीछे हाथ धो कर पड़ जाती है स्वास्थ्य मंत्री यदि कंडोम की उपयोगिता से अधिक भारतीय मूल्यों को तरजीह देने की बात करते है तो मीडिया उनपर दिन भर ट्रायल चलता है l क्योकि इन्हे लगता है की इनकी कमाई मार खायेगी  गौरतलब हो की इन मीडिया घरानो के आय का प्रमुख श्रोत आज   कामोत्तेजक  दवाई  और कंडोम जैसे विज्ञापनों के  प्रचार से प्राप्त हो रहा है ये पहले शराब का प्रचार कर कमाई करते है उसके बाद शराब छुड़ाने की दवाई का प्रचार कर इनके  दोनों  हाथ में लड्डू ही होता है  यह हम नीरा राडिया जैसे मामलो से समझ सकते है . यही नहीं इन्होने भारतीय संत परम्परा को भी कटघरे में खड़ा करने का कुत्षित प्रयाश कई मामलो में किया जिससे इनकी नियत को समझा जा सकता है .अब सवाल  उठाता है की भारतीय संस्कृति की अपनी गरिमा रही है मर्यादित आचरण को धेय मान कर ही हमारी संस्कृति फली फूली है पूरा विश्व हमारी संस्कृति का लोहा मानता रहा है लेकिन आज उसी संस्कृति पर क्षणिक लाभ की खातिर इनके द्वारा कुठराघात किया जा रहा है वो भी ऐसे समय में जब यूरोप और अमरीका हमारे आचरण को अंगीकार कर रहे हो वहा की लडकिया साड़ी को अपना प्रमुख वस्त्र बना रही हो और हिन्दुस्तानियो को  बिकनी के  तरजीह की सीख दी जा रही है क्या ये आस्चर्य का विषय  नहीं है .अब सवाल उठाता है की इन पर कैसे अंकुश लगाया जाये ताकि प्रेस की स्वतंत्रता का भी हनन ना हो और हमारी संस्कृति भी बची रहे इसके लिय हमें ही प्रयाश करना होगा सरकार पर दबाब बना कर हो या अन्य मार्गो से की इनके द्वारा प्रसारित विज्ञापनों के देख रेख के लिए एक ऐसे सांस्कृतिक  समूह का गठन किया जाये जिससे ये जो भी विज्ञापन का प्रसारण करे उससे पूर्व उस विज्ञापन की पूरी तरह जांचा परखा जाये उसके बाद ही प्रसारित किया जाये हलाकि नेशनल ब्रोडकास्ट एसोसिएशन जैसी संस्थाए मौजूद है लेकिन उनमे सिर्फ मीडिया घरानो के लोग ही है इसमें  जनता के चुने हुए  प्रतिनिधियों के साथ साथ सभी क्षेत्रो के सदस्य होने चाहिए जिससे यह समूह कारगर साबित हो और मीडिया घरानो की मनमाने रवैये पर रोक लग सके  ? हो सकता है अत्यधिकत उदारवादी और अंधी आधुनिकता के पैरोकारों को यह पसंद ना आये लेकिन अब बहुत कम समय बचा है इस विषय पर त्वरित करवाई की आवश्यकता जान पड़ती है .

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